Wednesday, 22 April 2020

April 22, 2020

LIMITED PARTNERSHIP | WHAT IS LIMITED PARTNERSHIP?

LIMITED PARTNERSHIP | WHAT IS LIMITED PARTNERSHIP?

सीमित साझेदारी (LIMITED PARTNERSHIP)



          परिभाषा- इसे 'THE LIMITED LIABILITY PARTNERSHIP ACT, 2008' के नाम से जानते हैं।  यह 1 अप्रैल , 2009 को लागू हुआ। यह अधिनियम पुरे भारत में लागू होता है। जिस साझेदारी में कुछ सदस्यों का दायित्व सीमित होता है , उसे 'सीमित साझेदार' कहते हैं। कॉमन लॉ (Common Law) के अनुसार, साझेदारी के समस्त सदस्यों का दायित्य्व असीमित होता है किन्तु सिविल लॉ (Civil Law) के अनुसार साझेदारी के कुछ सदस्यों का दायित्व सीमित हो सकता है।  साझेदारी के इस स्वरूप का उदय उन लोगों के लाभार्थ हुआ है जो किसी फर्म में साझेदार तो बनना चाहते हैं परन्तु अपना दायित्व सीमित रखना चाहते हैं। वे संस्था की ओर से न तो कोई काम कर सकते हैं और न किसी कार्य में हस्तछेप ही कर सकते हैं। 
 
         विशेषताएं- सीमित साझेदार के प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :
 
        (1) दो प्रकार के सदस्य- इनमें दो तरह के सदस्य होते हैं- (अ) साधारण अथवा क्रियाशील साझेदार, जिनका दायित्व असीमित होता है और जो व्यवसाय ससंचालन में भाग लेने का पूर्ण अधिकार रखते हैं. तथा 
(ब) विशेष या सीमित साझेदार जिनका दायित्व सीमित होता है और जो व्यवसाय-संचालन में भाग नहीं ले सकते।

        (2) कम-से-कम एक साधारण साझरदार होना- इनमें से से कम-से-कम एक साधारण साझेदार और कम-से-कम एक सीमित साझेदार होता हैं। 
       
        (3) अनिवार्य पंजीयन- इनकी पंजीयन कराना अनिवार्य है और रजिस्ट्री के लिए प्रार्थना-पत्र देते समय उसमे यह भरना पड़ता है कि किन साझेदारों का दायित्व सीमित है और किनका असीमित। 
 
        (4) पूँजी पूर्णतः दत्त होना- इसकी पूँजी नकद रोकड़ में एवं पूर्णतः दत्त होनी चाहिए। 

        (5) संस्था को बाध्य करना- एक सीमित साझेदार अपने कार्यों से संस्था को बाध्य नहीं कर सकता क्योंकि संस्था के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने का उसे अधिकार नहीं होता। 
   
        (6) समाप्ति नहीं- सीमित साझेदार की मृत्यु, दिवालिया या पागल होने से फर्म समाप्त नहीं होता। 

        (7) सीमित साझेदार संस्था में निष्क्रिय साझेदार के रूप में कार्य करता है, क्रियाशील साझेदार के रूप में नहीं। 
     
        (8) संस्था की दृष्ट्रि से अन्तर न होना-  संस्था की दृष्टि से सामान्य तथा सीमित साझेदार में कोई अन्तर नहीं होता है। 
   
        (9) हित हस्तान्तरण- अन्य साझेदारों की सहमति से सीमित साझेदार अपना हित दूसरों को हस्तान्तरित कर सकता है। 

        (10) अधिक पूँजी लगाया जाना- सामान्यतः सीमित साझेदार को साधारण साझेदार की अपेक्षा अधिक  लगानी पड़ती है। 
       

Tuesday, 21 April 2020

April 21, 2020

TYPES OF PARTNERSHIPS | KINDS OF PARTNERSHIPS IN HINDI

TYPES OF PARTNERSHIPS | KINDS OF PARTNERSHIPS IN HINDI

साझेदारी के प्रकार व भेद 

(KINDS OR TYPES OF PARTNERSHIPS)



1. ऐच्छिक साझेदारी (Partnership at Will)- भारतीय साझेदारी अधिनियम किओ धारा 7 के अनुसार यदि साझेदार के अनुबंध से साझेदारी की अवधी अथवा उसके विघटन या समापन के सम्बन्ध में कोई बात नहीं दी गयी है, तो ऐसी साझेदारी को 'ऐच्छिक साझेदारी' कहेंगे।  इस प्रकार की साझेदारि को किसी भी समय समस्त साझेदारों की सहमति से अथवा किसी एक साझेदार द्वारा भंग करने की सुचना देकर समाप्त किया जा सकता है। 


2. विशिष्ट साझेदार (Particular Partnership)- भारतीय साझेदारी अधिनियम धरा 8 के अनुसार, जब किसी विशिष्ट व्यवसाय  अथवा विशेष कार्य के लिए साझेदारी का निर्माण किया जाता है, तो उसे 'विशिष्ट साझेदारी' कहत हैं।  इस प्रकार की साझेदारी किसी निश्चित व्यवसाय के लिए प्रारम्भ की जाती है और उस उद्देश्य के के पूर्ण होने पर साझेदारी भी स्वतः समाप्त हो जाती है। 


3. नियत अवधि की साझेदारी (Fixed Term Partnership)- यदि किसी साझेदारी का निर्माण एक नियत अवधि के के लिए ही किया जाता है तो उसे 'नियत अवधि की साझेदारी' या 'निश्चितकालीन साझेदारी' कहेंगे। ऐसी दशा में जैसे ही नियत अवधी समाप्त होती है , साझेदारी का भी अंत हो जाता है। 


4. अनिश्चितकालीन साझेदारी (Non-Fixed Term Partnership)- यदि साझेदारी के अनुबंध में अवधि या समय के सम्बन्ध में कोई प्रतिबन्ध नहीं है और न ही उसका निर्माण किसी कार्य या उद्देश्य विशेष के लिए हुआ है, तो उसे 'अनिश्चितकालीन साझेदारी' कहेंगे।  ऐसी परिस्थिति में साझेदारी का समापन केवल विधान के अंतर्गत किया जा सकता है (जैसे- किसी आकस्मिक घटना के घटने पर- उदाहरणार्थ, किसी साझेदार की मृत्यु, आदि ) अन्यथा वह निरंतर चालू रहती है।  


5. सामान्य साझेदारी (Ordinary Partnership)- जिन फर्मों का नियमन व नियंत्रण भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 द्वारा किया जाता है, उन्हें साधारण साझेदारी कहते हैं।  प्रायः साझेदारियां 'सामान्य' या 'सधारण' ही होती हैं।  इनमें साझेदारों का दायित्व असीमित होता है, अर्थात फर्म के समापन पर यदि फर्म ऋणों को चुकाने के लिए साझेदारी की सम्पत्ति अपर्याप्त रहे तो साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति भी ली जा सकती है। 


6.सीमित  साझेदारी (Limited Partnership)- जिस साझेदारी संस्था में कुछ साझेदारों का उत्तरदायित्व उनके द्वारा दी गयी पूँजी की सीमा तक सीमित होता है, उनको 'सीमित साझेदारी' कहते हैं। अब भारत में भी सीमित  दायित्व क़ानूनी रूप से मान्य है।  

Saturday, 18 April 2020

April 18, 2020

PARTNERSHIP I - Meaning & Definition

PARTNERSHIP I - Meaning & Definition


साझेदारी का अर्थ 

(MEANING OF PARTNERSHIP)

              सामान्य बोलचाल की भाषा में, विशिष्ट गुणों वाले व्यक्तिओं के समूह के संगठन को 'साझेदारी' कहते हैं। वयवसायिक संगठन के इस प्रारूप के अन्तर्गत दो अथवा दो से अधिक व्यक्ति मिलकर व्यवसाय करते हैं। वे अपनी योग्यतानुसार व्यवसाय का प्रबन्ध संचालन करते हैं तथा पूंजी की व्यवस्था करते हैं।  इस प्रकार अलग-अलग गुणों वाले व्यक्ति- जैसे कुछ धनि-मानी  व्यक्ति होते हैं, कुछ प्रबन्ध कला में निपुण होते हैं, कुछ अधिक व्यवहारकुशल होते हैं तथा कुछ अन्य कलाओं में दक्ष होते हैं- अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ अनुसार साझेदारी संगठन का निर्माण करते हैं। संछेप में, विकेन्द्रित साधनों  के एकीकरण को ही 'साझेदारी' कहते हैं। 

साझेदारी की परिभाषाएं 

(DEFINITIONS OF PARTNERSHIP)

           साझेदारी का अर्थ भली प्रकार से समझने के लिए इसकी परिभाषाओं को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है :
(1) स्वतंत्र परिभाषाएँ (Independent Definitions)
          1. किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार,"एक साझेदार अथवा फर्म जैसा कि प्रायः  उसे कहा जाता है, व्यक्तिओं का वह समूह है जिन्होंने किसी व्यावसायिक उपक्रम को चलने के उद्देश्य से पूंजी अथवा सेवाओं का एकीकरण किया है।"
          
          2.  डॉ. जॉन. ए. शुबिन (Dr. Jhon A. Shubin) के अनुसार,"दो अथवा दो अधिक व्यक्ति इस आशय का  लिखित या मौखिक करके कि अमुक व्यवसाय को चलाने का पूर्ण उत्तरदायित्व वे संयुक्त रूप से अपने ऊपर लेंगे, साझेदारी का निर्माण कर सकते हैं।"

(2) वैधानिक परिभाषाएं  (Legal Definitions)
         1. भारतीय अधिनियम, 1932 की धारा 4 के अनुसार (Sec. 4 of Indian Partnership Act. 1932)- "साझेदारी उन व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध को कहते हैं जिन्होंने एक ऐसे व्यवसाय के लाभ को आपस में बाँटने का ठहराव किया हो  जिसे वे सब अथवा उन सब की ओर से कार्य करते हुए उनमें  से कोई एक व्यक्ति चलाता हो। " वे सभी व्यक्ति जिन्होंने एक-दूसरे के साथ साझेदारी का समझौता किया हो, व्यक्तिगत रूप से 'साझेदार' (Partner) और सामूहिक रूप से 'फर्म' (Firm) हैं अउ और जिस नाम से व्यवसाय करते हैं वह 'फर्म का नाम' (Name of the Firm) कहलाता है।          

         2. आंग्ल साझेदारी अधिनियम, 1890 के अनुसार,"साझेदारी लाभ की दृष्टि से मिल-जुलकर व्यापार चलाने के लिए व्यक्तियों  के मध्य पाया जाने वाला सम्बन्ध है।" 

 निष्कर्ष- साझेदारी कि उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्षस्वरुप यह कहा जा सकता है कि "साझेदारी दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संघ है जिसके सदस्य किसी विशिष्ट व्यवसाय को करने एवं उसके लाभ-हानि को आपस में बाँटने का अनुबंध करते हैं। व्यवसाय का प्रबन्ध संचालन सभी सदसयों द्वारा अथवा उनकी ओर से किसी एक व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है। 

Friday, 17 April 2020

April 17, 2020

What is Sole Trade or Sole Proprietorship? Meaning and Defiinitions of Sole Trade. Explained in Hindi

What is Sole Trade or Sole Proprietorship? Meaning and Defiinitions of Sole Trade. Explained in Hindi.


      एकाकी व्यवसाय का अर्थ

       (Meaning of Sole Trade)

अर्थ (Meaning)- एकल स्वामित्व वाला स्वरूप व्यवसायिक संगठन का वह स्वरूप है जिसका अध्यक्ष केवल एक व्यक्ति होता है, जिसे 'एकाकी व्यापार' (Sole Trader) कहते हैं। व्यापार का समस्त उत्तरदायित्व समस्त उत्तरदायित्व एक व्यक्ति के ही कन्धों पर होता है। असफल होने की दशा में व्यापार का सारा जोखिम भी उसे ही झेलना पड़ता है। एकाकी व्यपारी स्वंय ही व्यापार का स्वामी, उसका प्रबन्धक और कर्मचारी होता है। इन तथ्यों के आधार पर पिटसन और प्लाऊमैन द्वारा निकाला गया निष्कर्ष "एकल स्वामित्व का उसके स्वामी से कोई पृथक वैधानिक अस्तित्व नहीं है वह स्वंय में ही एक फर्म है" उचित है। एकाकी व्यापार को 'व्यक्तिगत साहसी' (Individual Entrepreneur), 'व्यक्तिगत स्वामी' (Individual Owner), 'व्यक्तिगत व्यवस्थापक' (Individual Organizer तथा 'एकल स्वमित्व, (Sole Proprietor) कहते हैं।

एकाकी व्यवसाय की परिभाषाएं

 (Definitions of Sole Trade)

परिभाषाएं (Definitions)
       1. चार्ल्स डब्ल्यू. गर्सटनबर्ग (Charles W. Gerstenberg) के अनुसार, " एकाकी व्यापार वह व्यवसायिक उपक्रम जिस पर एक व्यक्ति का स्वामित्व होता है और वही व्यक्ति उसका प्रबन्धक या मैनेजर होता है एवं समस्त व्यवसाय की आधारशिला वह स्वयं होता है।"
      2. डाॅ. जाॅन. ए. शुबिन (Dr. John A. Shubin) के अनुसार, "एकाकी स्वामित्व वाले व्यवसाय के अन्तर्गत एक व्यक्ति ही समस्त व्यवसाय का संगठन करता है, वही उसका स्वामी होत् है तथा वह अपने निज के नाम से व्यवसाय का संचालन करता है।
     3. शिल्ट तथा विल्सन के अनुसार, "ऐसा उपक्रम जिसका स्वामित्व एवं प्रबन्ध एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाता हो एकाकी व्यवसाय अथवा एकल स्वामित्व कहलाता है।"
     4. किम्बाल एवं किम्बाल (Kimball and Kimball) के अनुसार, " एकल व्यापारी अपने व्यवसाय से सम्बन्धित समस्त बातों का स्वयं निर्णायक होता है, केवल देश के सामान्य नियमों तथा उसके व्यवसाय पर प्रभाव डालने वाली विशिष्ट बातों को छोड़कर।"
     5. एल. एच. हैने के अनुसार, " एकाकी व्यापार व्यवसायिक संगठन का वह स्वरूप है जिसका अध्यक्ष एक ही व्यक्ति होता है, जो औषके समस्त क्रियाकलापों के लिए उत्तरदायी होता है, उसकी क्रियाओं का संचालन करता है तथा लाभ-हानि का सम्पूर्ण भार स्वयं ही उठाता है।"

   उदाहरण- एकाकी व्यवसाय के कुछ ज्वलन्त उदाहरण निम्नानुसार हैं- मिठाई  वाला, चाट  वाला, फेरी वाला, पान वाला, फुटकर विक्रेता, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, पंसारी, नाई, मोची, धोबी, कुम्हार, लुहार, बढ़ई, जुलाहा, चित्रकार, इत्यादि।
   निष्कर्ष- उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन करने के बाद हम यह कह सकते हैं कि  'एकल स्वामित्व वह वयापार है जिसकी स्थापना एक वयक्ति के द्वारा ही होती है, जो उसका स्वामी होने के साथ-साथ प्रबंधक, संचालक एवं समस्त हानि-लाभ का उत्तरदायी होता है। 

Tuesday, 14 April 2020

April 14, 2020

एक सफल व्यवसायी कैसे बनें? (How to become a successful Businessman

व्यवसायिक सफलता के आवश्यक गुण

(Essential Qualities of Business Success)


        प्रारम्भिक- जिस प्रकार से एक स्थान से दूसरे स्थान को रेलगाड़ी अथवा मोटरगाड़ी को ले जाने के लिए केवल रेलगाड़ी या मोटरगाड़ी की आवश्यकता नहीं होती वरन् कुशल चालक या ड्राइवर भी जरूरी होता है, उसी प्रकार व्यवसायिक सफलता के लिए सफल व्यवसायिक उपक्रम होने के साथ-साथ सफल व्यवसायी होना भी आवश्यक होता है। एक सफल व्यवसायी से आशय ऐसे व्यक्ति से होता है, जो कुशलता के साथ व्यवसाय का मार्ग-दर्शन व संचालन कर सके।
        व्यवसायिक सफलता के कुछ आधारभूत तत्व निम्नलिखित हैं- 
       (1) लक्ष्य-निर्धारण (Determination of Objectives)- व्यवसायिक सफलता का पहला और आवश्यक तत्व है लक्ष्य निर्धारित करना, अरथात् यह तय करना कि व्यवसाय की स्थापना किस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए की जा रही है, व्यवसाय समाज की किस प्रकार से सेवा करेगा, अमुक वस्तु या सेवा किस प्रकार समाज को सन्तोष प्रदान करेगी। संस्था के समस्त आधिकारियों तथा प्रमुख कर्मचारियों को लक्ष्यों से परिचित होना आवश्यक है जिससे कि वे उद्देश्यविहिन न हों तथा निरन्तर योजनानुसार कार्य करते रहें।
      (2) पूर्वानुमान करना (Forcasting)- लक्ष्य-निर्धारण के बाद पूर्वानुमान लगाना आवश्यक होता है। व्यवसाय में विभिन्न बातों का पूर्वानुमान लगाना पड़ता है जैसे स्थायि एंव कार्यशील पूंजी कितनी-कितनी होगी तथा कहां से प्राप्त की जायेगी? उत्पादन की लागत क्या होगी? विभिन्न घटकों के पारिश्रमिक की दर क्या होगी? विक्रय कितना, कहां तक, किस मूल्य पर किया जायेगा? लाभांश नीति क्या होगी? इत्यादि। इसके अतिरिक्त जनसंख्या , लागत मूल्य, तेजी-मन्दी, आदि के सामान्य पूर्वानुमान का भी ध्यान रखना पड़ता है।
      (3) उपयुक्त संगठन का नियोजन तथा उसकी स्थापना (Planning and Setting up of a proper Organisation)- व्यवसायिक सफलता हेतु उपयुक्त संगठन का गठन करके संस्था का भावी कार्यक्रम निश्चित करना चाहिए। कुशल, अनुभवी व प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति करनी चाहिए जो निष्ठावान तथा ईमानदार हों। दूसरे, कार्यालयीन संगठन भी विधिवत करना चाहिए।
      (4) पर्याप्त वित्तीय व्यवस्था (Adequate Finance)- स्थायीव कार्यशील व्ययों हेतु संस्था के पास पर्याप्त मात्रा में पूंजी होनी चाहिए। अति या न्यून पूंजीकरण न होकर उचित पूंजीकरण होना चाहिए।
      (5) शोध व विकास सुविधाएं (Facilities for reaserch and Development)- संस्था में शोध व विकास की भी सुविधाएं होनी चाहिए जिससे प्रयोग , अनुसंधान एंव नवप्रवर्तन को प्रोत्साहित किया जा सके।
      (6) कुशल एंव गयात्मक नेतृत्व (Efficient and Dynamic Leadership)- संगठन का नेतृत्व प्रगतिशील होना चाहिए। इसलिए यह आवश्यक है कि व्यवसायी में अनेक गुणों का संगम हो, जैसे- दूरदर्शिता, शीघ्र निर्णयन लेने की क्षमता, दृढ़ता, व्यवसायिक ज्ञान, कठोर परिश्रम की आदत, सहयोग से काम करना, साहस, आदि।
      (7) मोर्चाबन्दी या व्यूह रचना (Strategy)- इसका आशय यह है कि अपना नियोजन करते समय प्रतिद्वन्दियों की योजनाओं को भी ध्यान में रखा जाय।

सफल व्यवसायी के गुण

(Qualities of Successful Businessman)
       
(1) प्रभावशाली व्यक्तित्व (Impressive Personality)
(2) विवेकशील, कल्पनाशील एंव महत्वाकांक्षी (Rational Imagination and Ambition)
(3) उत्साह, साहस, तत्परता एंव दूरदर्शिता (Firmness and Courange)
(4) अथक परिश्रम (Hard Labour)
(5) सिद्धान्त एंव सदाचार (Principle and Honesty)
(6) लाभ की अपेक्षा सेवा को प्राथमिकता (Service First Profit afterwards)
(7) व्यवसाय में रुचि एंव विशिष्ट शिक्षा (Interest in Business and Specific Education)
(8) ग्राहक का विश्वास (Confidence of Customers)
(9) चरित्रवान (Character)
(10) योजनाओं को परखने व निर्णय लेने की शक्ति (Power decision taking and to examine the planning)
(11) परिवर्तनशील गतिविधियों से परिचित (Alertness towards change)
(12) मतभेदों को दूर करने की क्षमता (Ability to solve the dispute) 
(13) अनुशासनप्रियता (Discipline)
(14) स्वतन्त्र विचार-शक्ति (Independent Thinking)
(15) व्यवसायिक कीर्ति या साख (Goodwill of Business) 
(16) समय का मूल्यांकन (Value of Time)
(17) अन्य गुण (Other Qualities)

      

    

Monday, 13 April 2020

April 13, 2020

व्यवसाय कैसे शुरू करें? (How to Start Business?)

व्यवसाय की स्थापना

(Establishment of Business)


 प्रारम्भिक- प्राचिन काल में व्यवसाय का क्षेत्र अत्यन्त सीमित व संकुचित था। उत्पादन छोटे पैमाने पर किया जाता था। व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिए न तो किसी विशेष समस्या का सामना करना पड़ता था और न ही इसके लिए किसी विशेष प्रकार की शिक्षा-दिक्षा या अनुभव की ही आवश्यकता होती थी। किनूतु आज प्रिस्थितियां बदल गई हैं। व्यापार का आकार तथा व्यवसायिक जटिलताओं में वृध्दि हो गई है। आधुनिक, विशिष्टीकरण एंव 'गलाकाट प्रतिस्पर्धा' के युग में किसी नवीन व्यवसाय अथवा उद्योग को स्थापित करना उतना ही कठिन है जितना एक नए शिशु को जन्म देना। जिस प्रकार नए शिशु को जन्म देने में अनेक नयी-नयी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार एक नए व्यवसाय या उद्योग की स्थापना करते समय अनेक नई-नई कठिनाइयां व्यवसायी के समक्ष आती हैं। अतः आज के युग में किसी नए व्यवसाय की स्थापना से पुर्व सम्भावित समस्याओं पर गम्भिरतापूर्वक विचार कर लेना अत्यन्त आवश्यक हो गया है।

व्यवसाय की स्थापना से पूर्व ध्यान देने योग्य बातें

(Things to Keep in Mind Before Setting Up a Business)

Question- व्यवसाय की स्थापना से पहले किन-किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?
What things to keep in mind before setting up/establishment of a new Business?
Answer- किसी नए व्यवसाय की स्थापना करने से पहले निमन बातों पर विचार करना आवश्यक होगा:
     (1) व्यवसाय का चयन- व्यवसाय की स्थापना करने वाले व्यक्ति को सर्वप्रथम निर्णय करना चाहिए कि वह कैसा व्यवसाय प्रारम्भ करें? इसके लिए वह अपने परिवार-जनों, मित्रों एंव सम्बन्धियों से सलाह ले सकता है, किन्तु उसे व्यवसाय का चयन करने में (i) अपनी व्यक्तिगत रुचि, (ii) व्यक्तिगत योग्यता, 
(iii) उपलब्ध क्षेत्र, (iv) पूंजी की मात्रा, (v) जोखिम की मात्रा, पर ध्यान देना होगा तथा उसी के अनुसार अपनी सामर्थ्य तथा योग्यता के अनुरूप ही व्यक्ति को व्यवसाय का चयन करना चाहिए। व्यापार के अनेक स्वरूप हो सकते हैं, जैसे- स्थानिय, राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्टीय, थोक व्यापार, फुटकर व्यापार, किसी वस्तु का निर्माण करना, अथवा निर्मित वस्तु का क्रय-विक्रय करना, किसी विशिष्ट सेवा को प्रदान करना, आदि। व्यवसाय का चयन करने में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए : 
  (अ) व्यक्तिगत रूचि- इच्छुक व्यक्ति को उसी व्यवसाय का चयन करना चेहिए जिसमें रुचि हो, क्योंकि अरुचिपुर्ण कार्य से न तो सुख व शान्ति मिलती है और न ही सफलता।
  (ब) योग्यता व दक्षता- व्यक्तिगत रुचि के साथ-साथ व्यवसायी में काम करने की योग्यता व दक्षता भी होनी चाहिए। अतः उसे अपनी योग्यता व दक्षता की सीमाओं के अन्दर ही कार्य करना चाहिए तथा शिक्षा तथा अनुभव का भी ध्यान रखना चाहिए।
  (स) प्रवर्तन का क्षेत्र- व्यवसायिक सुअवसरों की खोज करना और खोज के पश्चात् उन अवसरों से लाभ कमाने के उद्देश्य से किसी व्यवसायिक या औद्योगिक इकाई की स्थापना एंव संगठन करना ही 'प्रवर्तन' कहलाता है। अतः व्यवसाय में प्रवेश के इच्छुक व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि जिस व्यवसाय की वह स्थापना करना चाहता है उसमें उसकी सफलता का क्या क्षेत्र है। उसे ऐसे व्यवसेय का चयन करना चाहिए जिसमें प्रतिस्पर्धा न्यूनतम हो तथा मांग की पूर्ति पूर्ण न हुई हो अथवा जहां मांग तीव्रता से बढ़ रही हो। जैसे आने वाले समय में 'कूरियर सेवा' का उज्जवल भविष्य है, क्योंकि आगे आने वाले समय में व्यवसाय ई-कामर्स के माध्यम से होगा।
  (द) पूंजी की उपलब्धता- व्यवसाय को प्रारम्भ करने के पूर्व व्यवसायी को उसके संचालन के लिए आवश्यक पूंजी का पहले से ही अनुमान लगा लेना चाहिए। पूंजी की आवश्यकता तीन कार्यों के लिए होती है- (i) स्थायी सम्पत्तियां; जैसे- भूमि, भवन, मशीन व फर्नीचर, आदि क्रय करने के लिए, (ii) चालू सम्पत्तियां, जैसे- कच्चा माल, ईंधन, आदि के क्रय करने के लिए, (iii) कार्यशील पूंजी- विभिन्न दैनिक कार्यों को चलाने के लिए, आदि। 
  (य) लाभ या जोखिम की मात्रा- व्यवसाय से प्राप्त होने वाले लाभ का भी अनुमान लगा लेना चाहिए और जिस व्यवसाय में लाभ की लेशमात्र भी सम्भावना न हो, उसको नहीं करना चाहिए। दूसरे , लाभ के साथ जोखिम की मात्रा का भी अनुमान लगाना आवश्यक है। जोखिमपूर्ण व्यवसाय में तभी प्रवेश करना चाहिए जब लाभ की सम्भावना निश्चित हो।

  (2) व्यपारिक संगठन का स्वरूप- एक नये व्यवसाय की स्थापना के पूर्व यह निश्चित करना भी आवश्यक है कि व्यवसाय के संगठन का स्वरूप क्या हो। व्यवसायिक संस्थाएं मुख्यतः चार प्रकार की हो सकती हैं, जैसे :
  (अ) एकाकी व्यापार
  (ब) साझेदारी का व्यवसाय
  (स) संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी
  (द) सहकारिता

  (3) वस्तु तथा बाजार विश्लेषण- व्यवसायी जिस वस्तु का उत्पादन करना चाहता है, उसे उस वस्तु के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। इसे ही 'वस्तु विश्लेषण' कहा जाता है। 'बाजार-विश्लेषण' का आशय बाजार में प्रस्तावित वस्तु की मांग, उपभोक्ताओं की रुचि, वस्तु की नई डिजायनों, किस्मों एंव उपयोगों तथा नए बाजारों की खोज से है। अतः बाजार विश्लेषण किया जाना भी नितान्त आवश्यक है।

  (4) व्यवसाय के स्थान का चयन- व्यवसाय स्थल का चयन करते समय व्यवसायी को सबसे प्रदेश का, फिर उस प्रदेश में क्षेत्र विशेष का , तत्पश्चात उस क्षेत्र विशेष में स्थल विशेष का चयन करना चाहिए। सस्ते ईंधन व शक्ति की उपलब्धता, बैंक व साख सुविधाएं, यातायात व संदेशवाहन की सुविधाएं; स्थानिय कर व नियम, सरकेरी नीति, आदि महत्वपूर्ण घटकों को ध्यान में रछने चाहिए।

  (5) व्यवसायिक इकाई का आकार- व्यवसायिक इकाई का आकार इस प्रकार का होना चाहिए कि व्यवसायी को न्यूनतम लागत पर अधिकतम लाभ हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि व्यवसायिक इकाई व संयन्त्र का अनुकूलतम आकार हो। अनुकूलतम आकार का निर्धारण करते समय तकनीकी तत्व, वित्तीय तत्व, प्रबन्धकिय तत्व, विपणीय तत्वों तथा जोखिम के तत्वों को ध्यान में रखना चाहिए।

  (6) संयन्त्र का फैलाव- संयन्त्र के फैलाव का आशय कारखाने के भवन में यन्त्रों, मशीनों और औजारों का स्थान नियत करने और अन्य षाज-सज्जा, वस्तु, गैस, पानी, आदि के लिए समौचित व्यवस्था करने के कार्य से है।

  (7) मानव, माल व मशीन की उपलब्धता- मानव, माल व मशीन तीन 'म' आधुनिक व्यवसाय की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। व्यवसायी को व्यवसाय की स्थापना के पूर्व ही कुशल, परिश्रमी व ईमानदार श्रमिकों, अच्छे व सस्ते कच्चे माल एंव उन्नत व अधिक कार्यक्षम मशीनों की व्यवस्था कर लेनी चाहिए।

  (8) भवन संरचना- इस बात पर भली प्रकार विचार कर लेनी चाहिए कि एक-मंजिली इमारत लाभदायक रहेगी या बहुमंजिली, प्रत्येक मंजिल में क्या साज-सामान होना चाहिए, उन्हें किस ओर खुला रखा जाय और कार्य पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा, कृत्रिम प्रकाश की क्या व्यवस्था होगी, इत्यादि।

  (9) लाइसेन्स प्राप्त करना- औद्योगिक (विकास एंव नियमन) अधिनियम, 1951 के अन्तर्गत वर्णित परावधानों के अनुसार केन्द्रीय सरकार की अनुमति के बिनान तो कोई बड़ा उपक्रम स्थापित किया जा सकता है, न किसी नयी वस्तु का उत्पादन किया जा सकता है, न किसी विद्यमान औद्योगिक इकाई का विस्तार किया जा सकता है और न किसी औद्योगिक उपक्रम के स्थान में परिवर्तन किया जा सकता है। सरकार को उद्योगों के लाइसेंस देने या दिये हुए लाइसेन्स रद्द करने का अधिकार है। सामान्यतः निम्न उद्योगों के लिए ही लाइसेन्स लेना अनिवार्य है : (i) शराब बनाना, (ii) तम्बाकू के सिगार एंव सिगरेट बनाना, (iii) इलेक्ट्रानिक, एयरोस्पेस तथा रक्षा उपकरण, (iv) डिटोनेटिंग फ्यूज, सेफ्टी फ्यूज, गन पाउडर, नाइट्रोसेल्यूलोज, (v) खतरनाक रसायन।

  (10) सरकार की अर्थ-वाणिज्यिक नीति- व्यापार को आरम्भ करने से पूर्व ही प्रवेशकर्ता को चाहिए कि सरकार की व्यापार तथा अर्थ-नीतियों व नियमों, आदि का पूरा-पूरा अध्ययन कर लें ताकि बीच में रूकावट न पड़े।

  (11) कार्यालय का संगठन
  (12) कर्मचारियों का चयन
  (13) उत्पादन; क्रय एंव विक्रय नीति
  (14) संगठनात्मक कलेवर की रचना
  (15) कुशल प्रबन्ध व्यवस्था

निष्कर्ष- व्यवसाय की स्थापना के लिए उपर्युक्त सभी तत्वों पर ध्यान देना नितान्त आवश्यक है, तभी व्यवसायी सफलता पाने की आशा कर सकता है। यदि बिना सोचे विचारे व्यवसाय प्रारम्भ कर दिया गया है तो उसमें सफलता प्राप्त करना नितान्त असम्भव है।

Sunday, 12 April 2020

April 12, 2020

व्यवसाय के उद्देश्य (Objectives of Business)

व्यवसाय के उद्देश्य

(Objectives of Business)


        व्यवसाय के उद्देश्यों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- (i) आर्थिक या लाभार्जन करने का उद्देश्य; (ii) सामाजिक या सेवा उद्देश्य; (iii) मेनविय उद्देश्य, और (iv) राष्ट्रीय उद्देश्य।

 (i)आर्थिक या लाभार्जन उद्देश्य (Economics or Profit Motive Objectives)- व्यवसाय के आर्थिक उद्देश्य से तात्पर्य है लाभ कमाना। व्यवसाय में लाभ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, रेल्फ हाॅरविज (Ralph Horwitz) ने लिखा है कि "लाभ व्यवसायिक क्रिया का नवजीवन स्रोत है। लाभ के बिना व्यवसायिक क्रियाओं का संचालन नहीं किया जा सकता। लाभ का व्यवसाय में वही महत्व है जो सत्ता क राजनीति में होता है।"

 अधिकतम लाभ कमाने के पक्ष में तर्क- 

    फ्राइडमेन (Friedmen), जायल डीन (Joel Dean), पीगू (Pigou), कोल (Cole), कीथ एंव गुबेलिनी (kieth and Gubellini) आदि ने अधिकतम लाभ कमाने के पक्ष में तर्क दिए हैं। इनके मतानुसार प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था में लाभों की अधिकाधिक करना ही प्रबन्ध का प्रमुख सामाजिक दायित्व है।इस विचारधारा के पक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं- (1) व्यवसाय स्थापित पर अधिक लाभ  न कमाना मार्ग से भटकना है। (2) लाभ आर्थिक कल्याण का आधार है। (3) यह निर्णयन का भी आधार है। (4) न्यूनतम या सन्तोष्प्रद लाभ व्यवसाय की सफलता का कोई माप नहीं है। (5) लाभ भावना से संसाधनों का मितव्ययिता से प्रयोग किया जाता है, इत्यादि।
   अधिकाधिक लाभ कमाने के विपक्ष में तर्क-
कार्ल मार्क्स (Karl Marx) के मतानुसार अधिकतम लाभ कमाना कानूनी डाका है। यह मानव जीवन की भव्यता के प्रति एक प्रकार की हिंसा है। इससे मानवता का पतन होता है। कुछ विद्वान अधिकतम लाभ कमाने के विरुद्ध हैं। जिनके तर्क निमनलिखित हैं- (1) आधिकाधिक लाभों से समाज में शोषण बढ़ता है तथा वर्ग-संघर्ष बढ़ता है। (2) इससे ग्राहकों व कर्मचारियों के हितों की उपेक्षा होती है। (3) समाज में नैतिक पतन को बढ़ावा मिलता है। (4) व्यक्तिगत स्वार्थ एंव भौतिकवेद को प्रेरणा मिलती है। (5) मानविय मूल्यों का ह्रास होता है, इत्यादि।

   उचित लाभ की अवधारणा

पक्ष एंव विपक्ष में प्रस्तुत तर्कों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि व्यवसायी को मात्र उचित लाभ ही लेना चाहिए। लाभ आर्थिक क्रिया के लिए मुख्य प्रेरणा प्रदान करने वाला तत्व है। व्यवसाय के अस्तित्व को जीवित रखने के लिए लाभ अर्जित करना आवश्यक भी है, किन्तु इसकी मात्रा उचित होनी चाहिए अनुचित नहीं। उचित लाभ कमाने के पक्ष में निम्न तर्क दिए जा सकते हैं- (1) लाभ व्यवसाय की प्रेरणा शक्ति है, अतः व्यवसाय को जीवित रखने के लिए उचित लाभ होना ही चाहिए। (2) यह व्यवसायी की सेवाओं व साहस का प्रतिफल है। (3) व्यवसाय के स्वामी द्वारा अंशधारियों को लाभांश लाभों से ही किया जा सकता है। (4) यह व्यवसायी के अभिप्रेरणा के लिए जरूरी है। (5) नव प्रवर्तन व व्यवसाय का विकास लाभों द्वारा ही सम्भव सो सकता है, इत्यादि।

   (ii) सामाजिक उद्देश्य (Socia Objectives)- आर्थिक उद्देश्य के साथ -साथ व्यवसाय का उद्देश्य ग्राहक व समाज की सेवा करना भी होने चाहिए। वर्तमान प्रतयोगी युग में ग्राहक ही बाजार का राजा है। वर्तमान अर्थव्यवस्था ग्राहक प्रधान है तथा ग्राहक सदैव सही है के आधार पर ही व्यवसाय का सफल संचालन किया जा सकता है।

   हेनरी एल. गैण्ट (Henry L. Gant) के शब्दों में,"व्यवसाय में सेवा आवश्यक है, न कि लाभ, जो श्रेष्ठतम सेवा प्रदान करेगा वही अधिकतम लाभ कमायेगा।" अतः एक व्यवसायी को ग्राहकों की सेवा एंव संतुष्टी के लिए निम्नलिखित कार्य करने चाहिए-
(1) अधिकतम श्रेष्ठतम व सस्ती वस्तुओं के निर्माण करना चाहिए, (2) वस्तुओं एंव सेवाओं की गुणवत्ता में गिरावट नहीं लाना चाहिए, (3) विक्रय उपरान्त सेवा पर अधिक ध्यान होना चाहिए, (4) वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा कर के उपभोक्ताओं को संकट में नहीं डालना चाहिए, (5) वस्तुओं की नियमित पुर्ति बनाये रखना चाहिए, आदि। 

  (iii) मानविय उद्देश्य (Human Objectives)- व्यवसायिक क्रियाओं का तिसरा उचित उद्देश्य 'मानविय' कहा जा सकता है। व्यवसाय में भूमि , कच्चा माल व मशीन जैसे जड़ पदार्थ ही नहीं होते , वरन् उनमें प्रबन्धक, संगठनकर्ताओं व श्रभिकों की एक विशाल सेना भी होती है। इन इन लोगों के साथ व्यवसाय के स्वामी या स्वामियों को मानवता का व्यवहार करना चिहिए। यदि मानविय दृष्टिकोण में समस्या का समाधान किया जाय, तो वास्तव में कोई उलझन रहेगी ही नहीं। 

    मानविय उद्देश्यों की पूर्ति हेतु व्यवसायी को निम्न कार्य करने चाहिए- (1) पूंजी के विनियोजकों को उचित लाभांश देना चाहिए, (2) पूर्तिकर्ताओं को उचित मूल्य देना चाहिए, (3) कर्मचारियों को उचित वेतन व भत्ते देना चाहिए, (4) उनके लिए कार्य की श्रेष्ठ दशाएं प्रदान की जाएं, (5) श्रम कल्याण एंव सामाजिक सुरक्षा की समुचित व्यवस्था हो, आदि।

   (iv) राष्ट्रीय उद्देश्य (National Objectives)- 

इससे आशय राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन किए जाने से है। इसके लिए निम्न कार्य किये जा सकते हैं- (1) सरकार के नियमों को धर्म समझ कर दृढ़ता से पालन करना चाहिए, (2) करों का समय पर भुगतान करना चाहिए, (3) संयन्त्र की उत्पादन क्षमता का पूर्ण किया जाए, (4) आर्थिक नियोजन में सक्रिय सहयोग करना, (5) देश की सीमित साधनों का अनुकूलतम उपयोग करना, आदि।
      

Saturday, 11 April 2020

April 11, 2020

उद्योग क्या है? अर्थ एवं प्रकार।(What is Industry? Types and Meaning)

उद्योग का अर्थ एंव प्रकार(Meaning and Kinds of Industry)



      उद्योग का अर्थ (Meaning of Industry)- उद्योग का अर्थ उन समस्त क्रियाओं से है, जो कच्चे माल को पक्के माल के रूप में अथवा विक्रय योग्य अवस्था में लाती हैं। सरल शब्दों में, उद्योग वस्तुओं में रूप उपयोगिता प्रदान करता है। उपलब्ध प्राकृतिक कच्चे पदार्थों से उत्पादक अथवा उपभोक्ता पदार्थों का निर्माण करना ही उद्योग कहलाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ती कपड़ा बनाता है, सीमेण्ट बनाता है अथवा बिस्कुट तैयार करता है, तो उसके उद्योग को हम 'उपभोक्ता पदार्थों का निर्माण करने वाला उद्योग' (Consumer's Goods Industry) कहेंगे; क्योंकि इन पदार्थों का अन्तिम उपभोक्ताओं द्वारा प्रत्यक्ष उपभोग किया जाता है। किन्तु यदि कोई व्यवसायी उन मशीनों या उपकरणों का निर्माण करता है जिनका उपयोग कपड़ा, सीमेण्ट, कागज या बिस्कुट बनाने वाले कारखानों में किया जाता है तो उसके उद्योग को 'पुंजिगत पदार्थों का निर्माण करने वाला उद्योग'(Producer of Capital Goods Country) कहेंगे, क्योंकि इन मशीनों से अन्य उद्योग दूसरे पदार्थ का निर्माण करेंगे।
       उद्योग के प्रकार (Kinds of Industry)- प्रकृति के अनुसार उदयोगों को निमन चार भागों में बांटा जा सकता है।
        (1) निष्कर्षण उद्योग (Extractive Industries)- इसके अन्तर्गत वे उद्योग आते हैं, जिनका सम्बन्ध मुख्यतः पृथ्वी, सागर अथवा वायु से विभिन्न प्रकार के उपयोगी पदार्थों को प्राप्त करके उन्हें कच्चे माल अथवा निर्मित माल के रूप में उपलब्ध करने से होता है। जैसे- खनिज उद्योग, मत्स्य उद्योग, शिकार खेलना, जंगल साफ करना, आदि।
       (2) जननिक उद्योग (Genetic Industries)- इन उद्योगों मे वनस्पति एंव पशुओं की विशिष्ट नसलों में प्रजनन कराके उनकी संख्या को बढ़ाया जाता है, जिससे कि उनके विक्रय द्वारा लाभ कमाया जा सके। पौधों व की नस्ल सुधार कमापनियां, मुर्गीपालन, मत्सय व मवेशी प्रजनन केन्द्र इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
   (3) निर्माणी उद्योग (Maunfacturing Industries)-
इनसे अभिप्राय ऐसे उद्योगों का है जिनमें कच्चे माल द्वारा निर्मित माल तैयार किया जाता है, जैसे कपास से कपड़े बनाना (वस्त्र उद्योग), पटसन से जूट का सामान बनाना (जूट उद्योग), गन्ने से चीनी बनाना (चीनी उद्योग), लुग्दी से कागज बनाना (कागज उद्योग), लकड़ी से फर्निचर (फर्निचर उद्योग), खनिज लोहे से इस्पात बनाना (इस्पात उद्योग), इत्यादि।
   (4) रचना उद्योग (Construction Industries)- इस श्रेणी के उद्योगों में निम्न का समावेश किया जाता है- सड़कें बनाना, पुल बनाना, नहरें निकालना, आदि।
April 11, 2020

वाणिज्य किसे कहते हैं? (What is Commerce?)

वाणिज्य (Commerce)

● वाणिज्य (Commerce)

      स्टिफेन्सन (Stephenson) के शब्दों में, "वाणिज्य उन समस्त प्रक्रियाओं के योग को कहते हैं जो किसी वस्तुओं के विनिमय में आने वाली कठीनाईयों, स्थान व समय सम्बन्धि बाधाओं को दूर करने से सम्बन्धित हैं, जैसे व्यापार, बीमा, बैंकिंग, परिवहन, भण्डारण, आदि।" अन्य शब्दों में, माल को उसके उत्पादन स्थल से उपभोग के स्थान तक पहुंचाने में जो बाधाऐं आती हैं उनको दूर करने से सम्बन्धित प्रिक्रियाओं को ही 'वाणिजय (Commerce)' कहा जाता है। मेल को उत्पादक के कारखाने से हटाकर उपभोक्ता या प्रयोक्ता के द्वार तक ले की प्रगति में पहले तो किसी सुरक्षित भण्डार में उसे संग्रह करना पड़ता है, विज्ञापन के विविध साधनों द्वारा लोगों को उसकी जानकारी कराई जाती है, तत्पश्चात् ग्राहक पाने पर माल को ठेला, मोटर, रेल, आदि के द्वारा भेजा जाता है। वाणिज्यिक क्रियाओं के सुसंचाल हेतु और भी अनेक संस्थाओं की सहायता लेनी पड़ती है,
जैसे- बैंक से पूंजी उधार लेना, पत्र-व्यवहार के लिए डाकखानों की सेवाओं का उपयोग करना, शीघ्र संवादवाहन के लिए तार विभाग की सेवाएं लेना, माल की जोखिम झेलने के लिए बीमा कम्पनी से बीमा कराना, विक्रय की सुविधा हेतु मध्यस्थों या एजेण्टों का सहयोग प्राप्त करना, माल लाने-ले-जाने के लिए परिवहन के साधनों का उपयोग करना, ई-कामर्स का प्रयोग करना, इत्यादि। वस्तुओं के उत्पादकों और उपभोक्ताओं को परस्पर सम्पर्क में लाने वाले इन समस्त साधनों को  'वाणिज्य' की परिभाषा में सम्मिलित किया जाता है।
     वाणिज्य के अंग- वाणिज्य के दो प्रमुख अंग हैं-
(1) व्यापार (Trade)- हमारे पिछले पोस्ट https://businessukti.blogspot.com/2020/04/trade.html?m=1 पर जाएं।
(2) व्यापार के सहायक (Aids to Trade)- इसी आधार पर प्रायः कहा जाता है कि-    
                             C = T + A
       उपर्युक्त सूत्र में 'C' का अर्थ वाणिज्य (Commerce), 'T' का व्यापार (Trade) और 'A' का व्यापार के सहायक (Aids to Trade) है।

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April 11, 2020

व्यापार किसे कहते हैं? (What is Trade?)

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व्यापार के अर्थ एंव प्रकार

(Meaning and kinds of Trade)



● व्यापार (Trade)

            अर्थ (Meaning) - सामान्यतः व्यापार से आशय वस्तुओं के क्रय-विक्रय से होता है। उदाहरण के लिए, 500 रुपये प्रति क्विण्टल की दर से चावल खरीद कर 650 रुपया प्रति क्विण्टल की दर से बेच दिया तो इस व्यवहार को 'व्यापार (Trade)' कहेंगे।
            व्यापार के प्रकार (Kinds of Trade) - व्यापार मुख्यतः दो प्रकार का होता है- (1) देशी व्यापार तथा 
(2) विदेशी व्यापार।

(1) देशी व्यापार (Home Trade)- देशी या आन्तरिक व्यापार से आशय उस व्यापार से है जो एक ही देश के विभिन्न स्थानों अथवा क्षेत्रों के बिच किया जाता है। जैसे आगरा व मुम्बई के बीच व्यापार, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के बीच व्यापार, आदि। इस प्रकार के व्यापार का क्षेत्र देश की आन्तरिक सीमाओं तक ही सीमित रहता है। देशी व्यापार पुनः तीन वर्गों में बांटा जा सकता है-
  (अ) स्थानिय व्यापार (Local Trade)-  इसका तात्पर्य ऐसे व्यापार से है जो किसी स्थान विशेष तक ही सीमित होता है जैसे- साग-सब्जि, दूध-दही, ताजे फल, मिठाईयाँ, भूसा, घास, आदि का व्यापार।
  (ब) राज्यीय व्यापार (State or Provincial Trade)- 
इससे तात्पर्य ऐसे से है जो किसी राज्य विशेष तक ही सीमित होता है। उदाहरण के लिए, आगरा, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद,
आदि नगरों के मध्य होने वाला व्यापार उत्तर प्रदेश राज्य की सीमाओं के अन्दर होने के कारण राजयीय व्यापार कहलायेगा।
  (स) अन्तर्राज्यीय व्यापार (Iter-stateTrade)- इससे तात्पर्य ऐसे व्यापार से है जो एक ही देश की सीमाओं के अन्तर्गत विभिन्न राज्यों के बीच होता है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के बीच होने वाला व्यापार अन्तर्राज्यीय व्यापार कहा जायेगा। 
          देशी या आन्तरिक व्यापार को (अ) थोक व्यपार (Whole Sale Trade) तथा (ब) फुटकर व्यापार (Retail Trade) के रूप मे भी वर्गीकृत किया जा सकता है। थोक व्यापार में बड़ी मात्रा में वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया जाता है और फुटकर व्यापार में जो प्रायः कई वस्तुओं से सम्बन्धित  होता है, व्यापारी माल को छोटी-छोटी मात्रा मे बेचता है।फुटकर व्यापारियों को पुनः अनेक उपवर्गों में बांटा जा सकता है- जैसे, फेरी वाले व्यापारी, विभागीय भण्डार, डाक द्वारा व्यापार, बहुसंख्यक दुकानें, सुपर बाजार, इत्यादि।

(2) विदेशी व्यापार (Foreign Trade)- विदेशी व्यापार से हमारा आशय उस व्यापार से है जो विभिन्न देशों अथवा सरकारों के बीच होता ह, जैसे भारत-पाक व्यापार, बारत-रूस व्यापार, भारत-अमेरिका व्यापार।
  विदेशो व्यापार को भी तीन वर्गों मे विभाजित किया जा सकता है- (अ) आयात व्यापार, (ब) निर्यात व्यापार, और (स) पुनर्नियात व्यापार।
  
  (अ) आयात व्यापार (Import Trade)- अन्य देशों से माल क्रय करना आयात कहलाता है। जब भारत में कोई माल दूसरे देशों से क्रय कर के मंगाया जाता है तो इसे भारत के लिए 'आयात व्यापार' कहा जाता है।
  (ब) निर्यात व्यापार (Export Trade)- अन्य देशों को माल भेजना निर्यात व्यापार कहलाता है। जब भारत से कोई माल दूसरे देशों को बेचा जाता है तो भारत के लिए यह 'निर्यात व्यापार' कहा जाता है।
  सूक्ष्म में इस प्रकार कहा जा सकता है कि जो भी देश दूसरे देश से क्रय करता है, उसके लिए यह व्यापार आयात व्यापार है; जो देश दूसरे देश को माल बेचता है, तो बेचने वाले देश के लिए यह निर्यात व्यापार है।
 (स) पुनर्निर्यात व्यापार (Entreport Trade)- जब भारत दूसरे देश से माल मंगाता है तथा इसे बिना अपने देश मे प्रयोग किए हुए दूसरे देश को भेज देता है तो इस प्रकार का व्यापार 'पुनर्निर्यात व्यापार' कहलाता है।

Friday, 10 April 2020

April 10, 2020

संगठन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Organisation)

संगठन का अर्थ एंव परिभाषा

(Meaning and definition of organisation)



संगठन का अर्थ (Meaning of Organisatio)
   उत्पादन के विभिन्न साधनों को इकठ्ठा करने तथा उनको  अनुकूलतम अनुपात में मिलाने के कार्य को संगठन कहते हैं। संगठन व्यवसाय के विभिन्न अंगों- व्यापार, वाणिज्य व उद्योग का एक समन्वित रूप है। व्यवसाय में संगठन का वही महत्व है जो मानव शरीर में विभिन्न अंगों के संगठन का होता है।मानव शरीर की संरचना हाथ, पैर, कान, नाक, आंख, आदि अंगों से हुई है जिनका सुचारू संगठन एंव संचालन मस्तिष्क द्वारा होता है। इसी प्रकार व्यवसाय के विभिन्न अंगों का संचालन संगठन द्वारा होता है। उत्पादन की कुशलता एक बड़ी सीमा तक संगठन की योग्यता एंव कुशलता पर निर्भर रहती है। अतः व्यवसाय में संगठन का बहुत बड़ा महत्व है।

संगठन की परिभेषाएं (Definitions of Organisation)

      प्रमुख विद्वानों द्वारा संगठन की परिभाषाएं निमन हैं- 
 (1) "किसी सामान्य उद्देश्य अथवा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विशिष्ट अंगों का मैत्रीपूर्ण संयोजन ही संगठन कहलाता है।"                                                                          - L.H.Haney
(2) "संगठन का आशय व्यक्तियों के समुह से है जो निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मिलकर कार्य करता है।"
                                                               -Mc.Ferland
● उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हमें यह स्पष्ट होता है कि-"उत्पादन के विभिन्न घटकों में प्रभावपूर्ण सामंजस्य स्थापित करने को ही संगठन कहते हैं।"

संगठन की विशेषताएं (Characteristic of Organisation)

       संगठन की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
● उपक्रम में एक से अधिक व्यक्तियों का होना।
● निश्चित उद्देश्य का होना।
● कर्मचारियों में सहयोग की भावना होना।
● क्रियाओं का संचालन।

Thursday, 9 April 2020

April 09, 2020

व्यवसाय का अर्थ (Meaning of Business)

व्यवसाय किसे कहते हैं?

व्यवसाय से आशय उन समस्त आर्थिक क्रियाओं से है, जो वस्तुओं एंव सेवाओं के उत्पादन, विनिमय, वितरण से सम्बन्धित होती हैं और जिनका उद्देश्य पारस्परिक हित व लाभ होता है।

उदाहरण के लिए, कृषकों द्वारा अनाज उत्पन्न करना, कारखानों में विभिन्न वस्तुओं का निर्माण किया जाना व्यापारियों द्वारा माल का क्रय-विक्रय किया जाना, प्रकाशकों द्वारा पुस्तकों का प्रकाशन करना, डाॅक्टर द्वारा रोगी का इलाज करना, नाई द्वारा हजाम़त बनाया जाना आदि व्यवसायिक क्रियाऐं हैं।
इस प्रकार व्यवसाय के अन्तर्गत मनुष्य की उन समस्त आर्थिक क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है जो वस्तुओं तथा सेवाओं द्वारा समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति कर के लाभ कमाने के उददेश्य से की जाती है।
अन्त में हम यह कह सकते हैं कि व्यवसाय में उद्योग, व्यापार, वाणिज्य, तथा वे व्यक्तिगत सेवाएं सम्मिलित की जाती हैं जो धनोपार्जन(धन कमाने) के उद्देश्य से की जाती है।

व्यवसाय की परिभाषाएं (Definitions of Business)

प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई व्यवसाय की परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-
(1) "व्यवसाय से आशय उन मानविय क्रियाओं से है जो वस्तुओं के क्रय-विक्रय द्वारा धन उत्पादन अथवा धन प्राप्ति के लिए की जाती है।"     -L.H.Haney
(2) "व्यवसाय का अर्थ आपसी लाभ के लिए वस्तुओं, द्रव्य अथवा सेवाओं के विनिमय से है।"     -McNaughton
(3) "व्यवसाय एक ऐसी संस्था सै जो कि किसी लाभ की प्रेणा के अन्तर्गत समाज को वस्तुएं तथा सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए संगठित एंव परिचालित की जाती है।   -Wheeler