Wednesday, 5 March 2025

March 05, 2025

म्यूचुअल फंड क्या होते हैं? What are Mutual Funds?

म्यूचुअल फंड क्या होते हैं? क्या Mutual Funds सच में सही hain?
इसे आसान हिंदी में समझते हैं।
Mutual Funds म्यूचुअल फंड को आप एक "साझा पैसों की थैली" की तरह समझ सकते हैं। जैसे गाँव में लोग मिलकर एक काम के लिए चंदा करते हैं, वैसे ही यहाँ बहुत सारे लोग अपने पैसे एक फंड में डालते हैं। फिर एक जानकार व्यक्ति (फंड मैनेजर) उस थैली के पैसों को सही जगह पर लगाता है ताकि उससे मुनाफा हो सके। यह निवेश का एक आसान और स्मार्ट तरीका है, खासकर उन लोगों के लिए जो शेयर बाजार या निवेश की बारीकियाँ नहीं समझते।

म्यूचुअल फंड की प्रक्रिया (Process of Mutual Funds) :

  1. पैसा जमा करना: आप और दूसरे निवेशक अपने-अपने पैसे एक म्यूचुअल फंड कंपनी को देते हैं, जैसे कि HDFC म्यूचुअल फंड या SBI म्यूचुअल फंड।
  2. यूनिट्स मिलना: बदले में आपको "यूनिट्स" मिलती हैं। जैसे, अगर एक यूनिट की कीमत 100 रुपये है और आपने 1,000 रुपये दिए, तो आपको 10 यूनिट्स मिलेंगी।
  3. निवेश: फंड मैनेजर उस पूरे जमा हुए पैसों को शेयर, बॉन्ड्स, या दूसरी जगहों पर लगाता है।
  4. NAV (Net Asset Value): हर दिन फंड की कीमत बदलती है, जिसे NAV कहते हैं। अगर NAV बढ़ता है, तो आपकी यूनिट्स की वैल्यू बढ़ती है, और अगर घटता है, तो वैल्यू कम होती है।
  5. मुनाफा या नुकसान: आप जब चाहें अपनी यूनिट्स बेच सकते हैं। अगर NAV बढ़ा हुआ है, तो आपको मुनाफा मिलेगा।

उदाहरण से समझें:

मान लीजिए आपने एक इक्विटी म्यूचुअल फंड में 5,000 रुपये लगाए। उस समय 1 यूनिट की कीमत 50 रुपये थी, तो आपको 100 यूनिट्स मिलीं।

  • 1 साल बाद अगर NAV बढ़कर 60 रुपये हो गया, तो आपकी 100 यूनिट्स की कीमत 6,000 रुपये हो जाएगी। यानी 1,000 रुपये का मुनाफा।
  • लेकिन अगर NAV गिरकर 40 रुपये हो गया, तो आपकी यूनिट्स की कीमत 4,000 रुपये होगी, यानी 1,000 रुपये का नुकसान।

म्यूचुअल फंड में जोखिम और रिटर्न:

  • जोखिम: शेयर बाजार ऊपर-नीचे होता रहता है। इक्विटी फंड में जोखिम ज्यादा होता है, डेट फंड में कम।
  • रिटर्न: जितना ज्यादा जोखिम, उतना ज्यादा मुनाफा मिलने की संभावना। लेकिन यह गारंटी नहीं है।
  • लंबी अवधि: म्यूचुअल फंड में आमतौर पर 5-10 साल तक पैसा लगाने से अच्छा रिटर्न मिलने की संभावना बढ़ती है।

SIP (सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान):

SIP म्यूचुअल फंड का एक लोकप्रिय तरीका है। इसमें आप हर महीने थोड़ा-थोड़ा पैसा डालते हैं, जैसे 1,000 रुपये।

  • फायदा: बाजार ऊपर हो या नीचे, आप औसत कीमत पर यूनिट्स खरीदते हैं। इसे "रुपी कॉस्ट एवरेजिंग" कहते हैं।
  • उदाहरण: अगर पहले महीने NAV 50 रुपये है, तो आपको 20 यूनिट्स मिलेंगी। अगले महीने NAV 40 रुपये हो जाए, तो आपको 25 यूनिट्स मिलेंगी। इससे बाजार के उतार-चढ़ाव का असर कम होता है।


म्यूचुअल फंड में खर्चे:

  • एक्सपेंस रेशियो(Expense Ratio) : फंड मैनेजर और कंपनी अपने काम के लिए थोड़ा सा पैसा लेते हैं, जैसे 1-2%। यह आपकी कमाई से काटा जाता है।
  • एंट्री/एग्जिट लोड(Entry Exit Load) : कुछ फंड में शुरू में या बाहर निकलते वक्त थोड़ी फीस लग सकती है।

किसे चुनना चाहिए?

  • अगर आपके पास थोड़ा पैसा है और आप उसे बढ़ाना चाहते हैं, तो म्यूचुअल फंड अच्छा ऑप्शन है।
  • अगर आप जोखिम ले सकते हैं, तो इक्विटी फंड चुनें। अगर सुरक्षित रहना चाहते हैं, तो डेट फंड लें।

सावधानियाँ:

  • हमेशा फंड का पिछले प्रदर्शन (पिछले 3-5 साल का रिटर्न) देखें।
  • अपने लक्ष्य (जैसे घर खरीदना, बच्चों की पढ़ाई) के हिसाब से फंड चुनें।
  • किसी भी म्यूचुअल फंड में पैसा डालने से पहले उसकी पूरी जानकारी पढ़ें।


March 05, 2025

भारतीय शेयर बाजार को समझें: नौसिखियों के लिए गाइड - BSE, NSE की मूल बातें और निवेश शुरू करने का तरीका

भारतीय शेयर बाजार को समझें: नौसिखियों के लिए गाइड - BSE, NSE की मूल बातें और निवेश शुरू करने का तरीका। 

भारतीय शेयर बाजार वह जगह है जहां लोग कंपनियों के शेयर (हिस्सेदारी) खरीदते और बेचते हैं। यह एक ऐसा बाजार है जहां आप अपने पैसे को निवेश करके उसे बढ़ा सकते हैं। अगर आप नौसिखिया हैं और शेयर बाजार में कदम रखना चाहते हैं, तो पहले इसकी मूल बातें समझना जरूरी है। इसमें दो मुख्य शेयर बाजार हैं: BSE (बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज) और NSE (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज)
चलिए इसे आसान भाषा में समझते हैं।

BSE और NSE क्या हैं?

  • BSE: यह भारत का सबसे पुराना स्टॉक एक्सचेंज है, जो 1875 में शुरू हुआ। इसका मुख्य सूचकांक (इंडेक्स) सेंसेक्स (Sensex) कहलाता है, जिसमें भारत की टॉप 30 कंपनियां शामिल होती हैं। यह आपको बाजार की स्थिति का अंदाजा देता है।
  • NSE: यह थोड़ा नया है, 1992 में शुरू हुआ। इसका मुख्य इंडेक्स निफ्टी (Nifty) है, जिसमें टॉप 50 कंपनियां शामिल हैं। NSE आज भारत में सबसे ज्यादा ट्रेडिंग वाला एक्सचेंज है।

दोनों ही जगह कंपनियों के शेयर खरीदे-बेचे जाते हैं। जैसे, अगर आपको लगता है कि टाटा या रिलायंस जैसी कंपनी भविष्य में अच्छा करेगी, तो आप उनके शेयर खरीद सकते हैं। अगर उनकी कीमत बढ़ती है, तो आप मुनाफा कमा सकते हैं।

निवेश शुरू करने का तरीका

शेयर बाजार में निवेश शुरू करने के लिए कुछ आसान कदम हैं:

  1. डिमैट और ट्रेडिंग अकाउंट खोलें:
    • आपको एक डिमैट अकाउंट चाहिए, जहां आपके शेयर डिजिटल रूप में रखे जाते हैं।
    • ट्रेडिंग अकाउंट से आप शेयर खरीदते-बेचते हैं।
    • ये अकाउंट बैंक (जैसे HDFC, ICICI) या ब्रोकर (जैसे Zerodha, Upstox) के जरिए खोल सकते है। 
  2. KYC पूरा करें:
    • पैन कार्ड, आधार कार्ड और बैंक डिटेल्स देकर अपनी पहचान सत्यापित करें। 
  3. बाजार का अध्ययन करें:
    • थोड़ा रिसर्च करें कि कौन सी कंपनी अच्छा प्रदर्शन कर रही है। सेंसेक्स और निफ्टी के रुझान देखें।
    • न्यूज़, कंपनी की कमाई और मार्केट ट्रेंड पर नजर रखें।

  4. छोटी राशि से शुरू करें:
    • पहले छोटे निवेश से शुरुआत करें, जैसे 500 या 1000 रुपये, ताकि जोखिम कम रहे।

  5. ऐप या ब्रोकर का इस्तेमाल करें:
    • Zerodha, Groww जैसे ऐप्स से आसानी से शेयर खरीद-बेच सकते हैं। बस अपने अकाउंट में पैसे डालें और निवेश शुरू करें।

कुछ जरूरी बातें

  • जोखिम: शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव होता है। कीमतें कभी बढ़ती हैं, कभी गिरती हैं। इसलिए सोच-समझकर निवेश करें।
  • लंबी अवधि का नजरिया: अगर आप लंबे समय तक निवेश करते हैं (5-10 साल), तो मुनाफे की संभावना बढ़ जाती है।
  • SIP का विकल्प: अगर सीधे शेयर खरीदने से डर लगता है, तो म्यूचुअल फंड में SIP (सिस्टमैटिक इनवेस्टमेंट प्लान) शुरू कर सकते हैं।

तो, नौसिखिए के तौर पर पहले BSE और NSE को समझें, एक डिमैट अकाउंट खोलें, और छोटे कदमों से निवेश शुरू करें। धीरे-धीरे अनुभव के साथ आप इसमें माहिर हो जाएंगे। क्या आपके मन में कोई सवाल है या इसे और आसान करना है?

Wednesday, 22 April 2020

April 22, 2020

LIMITED PARTNERSHIP | WHAT IS LIMITED PARTNERSHIP?

LIMITED PARTNERSHIP | WHAT IS LIMITED PARTNERSHIP?

सीमित साझेदारी (LIMITED PARTNERSHIP)



          परिभाषा- इसे 'THE LIMITED LIABILITY PARTNERSHIP ACT, 2008' के नाम से जानते हैं।  यह 1 अप्रैल , 2009 को लागू हुआ। यह अधिनियम पुरे भारत में लागू होता है। जिस साझेदारी में कुछ सदस्यों का दायित्व सीमित होता है , उसे 'सीमित साझेदार' कहते हैं। कॉमन लॉ (Common Law) के अनुसार, साझेदारी के समस्त सदस्यों का दायित्य्व असीमित होता है किन्तु सिविल लॉ (Civil Law) के अनुसार साझेदारी के कुछ सदस्यों का दायित्व सीमित हो सकता है।  साझेदारी के इस स्वरूप का उदय उन लोगों के लाभार्थ हुआ है जो किसी फर्म में साझेदार तो बनना चाहते हैं परन्तु अपना दायित्व सीमित रखना चाहते हैं। वे संस्था की ओर से न तो कोई काम कर सकते हैं और न किसी कार्य में हस्तछेप ही कर सकते हैं। 
 
         विशेषताएं- सीमित साझेदार के प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :
 
        (1) दो प्रकार के सदस्य- इनमें दो तरह के सदस्य होते हैं- (अ) साधारण अथवा क्रियाशील साझेदार, जिनका दायित्व असीमित होता है और जो व्यवसाय ससंचालन में भाग लेने का पूर्ण अधिकार रखते हैं. तथा 
(ब) विशेष या सीमित साझेदार जिनका दायित्व सीमित होता है और जो व्यवसाय-संचालन में भाग नहीं ले सकते।

        (2) कम-से-कम एक साधारण साझरदार होना- इनमें से से कम-से-कम एक साधारण साझेदार और कम-से-कम एक सीमित साझेदार होता हैं। 
       
        (3) अनिवार्य पंजीयन- इनकी पंजीयन कराना अनिवार्य है और रजिस्ट्री के लिए प्रार्थना-पत्र देते समय उसमे यह भरना पड़ता है कि किन साझेदारों का दायित्व सीमित है और किनका असीमित। 
 
        (4) पूँजी पूर्णतः दत्त होना- इसकी पूँजी नकद रोकड़ में एवं पूर्णतः दत्त होनी चाहिए। 

        (5) संस्था को बाध्य करना- एक सीमित साझेदार अपने कार्यों से संस्था को बाध्य नहीं कर सकता क्योंकि संस्था के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने का उसे अधिकार नहीं होता। 
   
        (6) समाप्ति नहीं- सीमित साझेदार की मृत्यु, दिवालिया या पागल होने से फर्म समाप्त नहीं होता। 

        (7) सीमित साझेदार संस्था में निष्क्रिय साझेदार के रूप में कार्य करता है, क्रियाशील साझेदार के रूप में नहीं। 
     
        (8) संस्था की दृष्ट्रि से अन्तर न होना-  संस्था की दृष्टि से सामान्य तथा सीमित साझेदार में कोई अन्तर नहीं होता है। 
   
        (9) हित हस्तान्तरण- अन्य साझेदारों की सहमति से सीमित साझेदार अपना हित दूसरों को हस्तान्तरित कर सकता है। 

        (10) अधिक पूँजी लगाया जाना- सामान्यतः सीमित साझेदार को साधारण साझेदार की अपेक्षा अधिक  लगानी पड़ती है। 
       

Tuesday, 21 April 2020

April 21, 2020

TYPES OF PARTNERSHIPS | KINDS OF PARTNERSHIPS IN HINDI

TYPES OF PARTNERSHIPS | KINDS OF PARTNERSHIPS IN HINDI

साझेदारी के प्रकार व भेद 

(KINDS OR TYPES OF PARTNERSHIPS)



1. ऐच्छिक साझेदारी (Partnership at Will)- भारतीय साझेदारी अधिनियम किओ धारा 7 के अनुसार यदि साझेदार के अनुबंध से साझेदारी की अवधी अथवा उसके विघटन या समापन के सम्बन्ध में कोई बात नहीं दी गयी है, तो ऐसी साझेदारी को 'ऐच्छिक साझेदारी' कहेंगे।  इस प्रकार की साझेदारि को किसी भी समय समस्त साझेदारों की सहमति से अथवा किसी एक साझेदार द्वारा भंग करने की सुचना देकर समाप्त किया जा सकता है। 


2. विशिष्ट साझेदार (Particular Partnership)- भारतीय साझेदारी अधिनियम धरा 8 के अनुसार, जब किसी विशिष्ट व्यवसाय  अथवा विशेष कार्य के लिए साझेदारी का निर्माण किया जाता है, तो उसे 'विशिष्ट साझेदारी' कहत हैं।  इस प्रकार की साझेदारी किसी निश्चित व्यवसाय के लिए प्रारम्भ की जाती है और उस उद्देश्य के के पूर्ण होने पर साझेदारी भी स्वतः समाप्त हो जाती है। 


3. नियत अवधि की साझेदारी (Fixed Term Partnership)- यदि किसी साझेदारी का निर्माण एक नियत अवधि के के लिए ही किया जाता है तो उसे 'नियत अवधि की साझेदारी' या 'निश्चितकालीन साझेदारी' कहेंगे। ऐसी दशा में जैसे ही नियत अवधी समाप्त होती है , साझेदारी का भी अंत हो जाता है। 


4. अनिश्चितकालीन साझेदारी (Non-Fixed Term Partnership)- यदि साझेदारी के अनुबंध में अवधि या समय के सम्बन्ध में कोई प्रतिबन्ध नहीं है और न ही उसका निर्माण किसी कार्य या उद्देश्य विशेष के लिए हुआ है, तो उसे 'अनिश्चितकालीन साझेदारी' कहेंगे।  ऐसी परिस्थिति में साझेदारी का समापन केवल विधान के अंतर्गत किया जा सकता है (जैसे- किसी आकस्मिक घटना के घटने पर- उदाहरणार्थ, किसी साझेदार की मृत्यु, आदि ) अन्यथा वह निरंतर चालू रहती है।  


5. सामान्य साझेदारी (Ordinary Partnership)- जिन फर्मों का नियमन व नियंत्रण भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 द्वारा किया जाता है, उन्हें साधारण साझेदारी कहते हैं।  प्रायः साझेदारियां 'सामान्य' या 'सधारण' ही होती हैं।  इनमें साझेदारों का दायित्व असीमित होता है, अर्थात फर्म के समापन पर यदि फर्म ऋणों को चुकाने के लिए साझेदारी की सम्पत्ति अपर्याप्त रहे तो साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति भी ली जा सकती है। 


6.सीमित  साझेदारी (Limited Partnership)- जिस साझेदारी संस्था में कुछ साझेदारों का उत्तरदायित्व उनके द्वारा दी गयी पूँजी की सीमा तक सीमित होता है, उनको 'सीमित साझेदारी' कहते हैं। अब भारत में भी सीमित  दायित्व क़ानूनी रूप से मान्य है।  

Saturday, 18 April 2020

April 18, 2020

PARTNERSHIP I - Meaning & Definition

PARTNERSHIP I - Meaning & Definition


साझेदारी का अर्थ 

(MEANING OF PARTNERSHIP)

              सामान्य बोलचाल की भाषा में, विशिष्ट गुणों वाले व्यक्तिओं के समूह के संगठन को 'साझेदारी' कहते हैं। वयवसायिक संगठन के इस प्रारूप के अन्तर्गत दो अथवा दो से अधिक व्यक्ति मिलकर व्यवसाय करते हैं। वे अपनी योग्यतानुसार व्यवसाय का प्रबन्ध संचालन करते हैं तथा पूंजी की व्यवस्था करते हैं।  इस प्रकार अलग-अलग गुणों वाले व्यक्ति- जैसे कुछ धनि-मानी  व्यक्ति होते हैं, कुछ प्रबन्ध कला में निपुण होते हैं, कुछ अधिक व्यवहारकुशल होते हैं तथा कुछ अन्य कलाओं में दक्ष होते हैं- अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ अनुसार साझेदारी संगठन का निर्माण करते हैं। संछेप में, विकेन्द्रित साधनों  के एकीकरण को ही 'साझेदारी' कहते हैं। 

साझेदारी की परिभाषाएं 

(DEFINITIONS OF PARTNERSHIP)

           साझेदारी का अर्थ भली प्रकार से समझने के लिए इसकी परिभाषाओं को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है :
(1) स्वतंत्र परिभाषाएँ (Independent Definitions)
          1. किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार,"एक साझेदार अथवा फर्म जैसा कि प्रायः  उसे कहा जाता है, व्यक्तिओं का वह समूह है जिन्होंने किसी व्यावसायिक उपक्रम को चलने के उद्देश्य से पूंजी अथवा सेवाओं का एकीकरण किया है।"
          
          2.  डॉ. जॉन. ए. शुबिन (Dr. Jhon A. Shubin) के अनुसार,"दो अथवा दो अधिक व्यक्ति इस आशय का  लिखित या मौखिक करके कि अमुक व्यवसाय को चलाने का पूर्ण उत्तरदायित्व वे संयुक्त रूप से अपने ऊपर लेंगे, साझेदारी का निर्माण कर सकते हैं।"

(2) वैधानिक परिभाषाएं  (Legal Definitions)
         1. भारतीय अधिनियम, 1932 की धारा 4 के अनुसार (Sec. 4 of Indian Partnership Act. 1932)- "साझेदारी उन व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध को कहते हैं जिन्होंने एक ऐसे व्यवसाय के लाभ को आपस में बाँटने का ठहराव किया हो  जिसे वे सब अथवा उन सब की ओर से कार्य करते हुए उनमें  से कोई एक व्यक्ति चलाता हो। " वे सभी व्यक्ति जिन्होंने एक-दूसरे के साथ साझेदारी का समझौता किया हो, व्यक्तिगत रूप से 'साझेदार' (Partner) और सामूहिक रूप से 'फर्म' (Firm) हैं अउ और जिस नाम से व्यवसाय करते हैं वह 'फर्म का नाम' (Name of the Firm) कहलाता है।          

         2. आंग्ल साझेदारी अधिनियम, 1890 के अनुसार,"साझेदारी लाभ की दृष्टि से मिल-जुलकर व्यापार चलाने के लिए व्यक्तियों  के मध्य पाया जाने वाला सम्बन्ध है।" 

 निष्कर्ष- साझेदारी कि उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्षस्वरुप यह कहा जा सकता है कि "साझेदारी दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संघ है जिसके सदस्य किसी विशिष्ट व्यवसाय को करने एवं उसके लाभ-हानि को आपस में बाँटने का अनुबंध करते हैं। व्यवसाय का प्रबन्ध संचालन सभी सदसयों द्वारा अथवा उनकी ओर से किसी एक व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है। 

Friday, 17 April 2020

April 17, 2020

What is Sole Trade or Sole Proprietorship? Meaning and Defiinitions of Sole Trade. Explained in Hindi

What is Sole Trade or Sole Proprietorship? Meaning and Defiinitions of Sole Trade. Explained in Hindi.


      एकाकी व्यवसाय का अर्थ

       (Meaning of Sole Trade)

अर्थ (Meaning)- एकल स्वामित्व वाला स्वरूप व्यवसायिक संगठन का वह स्वरूप है जिसका अध्यक्ष केवल एक व्यक्ति होता है, जिसे 'एकाकी व्यापार' (Sole Trader) कहते हैं। व्यापार का समस्त उत्तरदायित्व समस्त उत्तरदायित्व एक व्यक्ति के ही कन्धों पर होता है। असफल होने की दशा में व्यापार का सारा जोखिम भी उसे ही झेलना पड़ता है। एकाकी व्यपारी स्वंय ही व्यापार का स्वामी, उसका प्रबन्धक और कर्मचारी होता है। इन तथ्यों के आधार पर पिटसन और प्लाऊमैन द्वारा निकाला गया निष्कर्ष "एकल स्वामित्व का उसके स्वामी से कोई पृथक वैधानिक अस्तित्व नहीं है वह स्वंय में ही एक फर्म है" उचित है। एकाकी व्यापार को 'व्यक्तिगत साहसी' (Individual Entrepreneur), 'व्यक्तिगत स्वामी' (Individual Owner), 'व्यक्तिगत व्यवस्थापक' (Individual Organizer तथा 'एकल स्वमित्व, (Sole Proprietor) कहते हैं।

एकाकी व्यवसाय की परिभाषाएं

 (Definitions of Sole Trade)

परिभाषाएं (Definitions)
       1. चार्ल्स डब्ल्यू. गर्सटनबर्ग (Charles W. Gerstenberg) के अनुसार, " एकाकी व्यापार वह व्यवसायिक उपक्रम जिस पर एक व्यक्ति का स्वामित्व होता है और वही व्यक्ति उसका प्रबन्धक या मैनेजर होता है एवं समस्त व्यवसाय की आधारशिला वह स्वयं होता है।"
      2. डाॅ. जाॅन. ए. शुबिन (Dr. John A. Shubin) के अनुसार, "एकाकी स्वामित्व वाले व्यवसाय के अन्तर्गत एक व्यक्ति ही समस्त व्यवसाय का संगठन करता है, वही उसका स्वामी होत् है तथा वह अपने निज के नाम से व्यवसाय का संचालन करता है।
     3. शिल्ट तथा विल्सन के अनुसार, "ऐसा उपक्रम जिसका स्वामित्व एवं प्रबन्ध एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाता हो एकाकी व्यवसाय अथवा एकल स्वामित्व कहलाता है।"
     4. किम्बाल एवं किम्बाल (Kimball and Kimball) के अनुसार, " एकल व्यापारी अपने व्यवसाय से सम्बन्धित समस्त बातों का स्वयं निर्णायक होता है, केवल देश के सामान्य नियमों तथा उसके व्यवसाय पर प्रभाव डालने वाली विशिष्ट बातों को छोड़कर।"
     5. एल. एच. हैने के अनुसार, " एकाकी व्यापार व्यवसायिक संगठन का वह स्वरूप है जिसका अध्यक्ष एक ही व्यक्ति होता है, जो औषके समस्त क्रियाकलापों के लिए उत्तरदायी होता है, उसकी क्रियाओं का संचालन करता है तथा लाभ-हानि का सम्पूर्ण भार स्वयं ही उठाता है।"

   उदाहरण- एकाकी व्यवसाय के कुछ ज्वलन्त उदाहरण निम्नानुसार हैं- मिठाई  वाला, चाट  वाला, फेरी वाला, पान वाला, फुटकर विक्रेता, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, पंसारी, नाई, मोची, धोबी, कुम्हार, लुहार, बढ़ई, जुलाहा, चित्रकार, इत्यादि।
   निष्कर्ष- उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन करने के बाद हम यह कह सकते हैं कि  'एकल स्वामित्व वह वयापार है जिसकी स्थापना एक वयक्ति के द्वारा ही होती है, जो उसका स्वामी होने के साथ-साथ प्रबंधक, संचालक एवं समस्त हानि-लाभ का उत्तरदायी होता है। 

Tuesday, 14 April 2020

April 14, 2020

एक सफल व्यवसायी कैसे बनें? (How to become a successful Businessman

व्यवसायिक सफलता के आवश्यक गुण

(Essential Qualities of Business Success)


        प्रारम्भिक- जिस प्रकार से एक स्थान से दूसरे स्थान को रेलगाड़ी अथवा मोटरगाड़ी को ले जाने के लिए केवल रेलगाड़ी या मोटरगाड़ी की आवश्यकता नहीं होती वरन् कुशल चालक या ड्राइवर भी जरूरी होता है, उसी प्रकार व्यवसायिक सफलता के लिए सफल व्यवसायिक उपक्रम होने के साथ-साथ सफल व्यवसायी होना भी आवश्यक होता है। एक सफल व्यवसायी से आशय ऐसे व्यक्ति से होता है, जो कुशलता के साथ व्यवसाय का मार्ग-दर्शन व संचालन कर सके।
        व्यवसायिक सफलता के कुछ आधारभूत तत्व निम्नलिखित हैं- 
       (1) लक्ष्य-निर्धारण (Determination of Objectives)- व्यवसायिक सफलता का पहला और आवश्यक तत्व है लक्ष्य निर्धारित करना, अरथात् यह तय करना कि व्यवसाय की स्थापना किस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए की जा रही है, व्यवसाय समाज की किस प्रकार से सेवा करेगा, अमुक वस्तु या सेवा किस प्रकार समाज को सन्तोष प्रदान करेगी। संस्था के समस्त आधिकारियों तथा प्रमुख कर्मचारियों को लक्ष्यों से परिचित होना आवश्यक है जिससे कि वे उद्देश्यविहिन न हों तथा निरन्तर योजनानुसार कार्य करते रहें।
      (2) पूर्वानुमान करना (Forcasting)- लक्ष्य-निर्धारण के बाद पूर्वानुमान लगाना आवश्यक होता है। व्यवसाय में विभिन्न बातों का पूर्वानुमान लगाना पड़ता है जैसे स्थायि एंव कार्यशील पूंजी कितनी-कितनी होगी तथा कहां से प्राप्त की जायेगी? उत्पादन की लागत क्या होगी? विभिन्न घटकों के पारिश्रमिक की दर क्या होगी? विक्रय कितना, कहां तक, किस मूल्य पर किया जायेगा? लाभांश नीति क्या होगी? इत्यादि। इसके अतिरिक्त जनसंख्या , लागत मूल्य, तेजी-मन्दी, आदि के सामान्य पूर्वानुमान का भी ध्यान रखना पड़ता है।
      (3) उपयुक्त संगठन का नियोजन तथा उसकी स्थापना (Planning and Setting up of a proper Organisation)- व्यवसायिक सफलता हेतु उपयुक्त संगठन का गठन करके संस्था का भावी कार्यक्रम निश्चित करना चाहिए। कुशल, अनुभवी व प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति करनी चाहिए जो निष्ठावान तथा ईमानदार हों। दूसरे, कार्यालयीन संगठन भी विधिवत करना चाहिए।
      (4) पर्याप्त वित्तीय व्यवस्था (Adequate Finance)- स्थायीव कार्यशील व्ययों हेतु संस्था के पास पर्याप्त मात्रा में पूंजी होनी चाहिए। अति या न्यून पूंजीकरण न होकर उचित पूंजीकरण होना चाहिए।
      (5) शोध व विकास सुविधाएं (Facilities for reaserch and Development)- संस्था में शोध व विकास की भी सुविधाएं होनी चाहिए जिससे प्रयोग , अनुसंधान एंव नवप्रवर्तन को प्रोत्साहित किया जा सके।
      (6) कुशल एंव गयात्मक नेतृत्व (Efficient and Dynamic Leadership)- संगठन का नेतृत्व प्रगतिशील होना चाहिए। इसलिए यह आवश्यक है कि व्यवसायी में अनेक गुणों का संगम हो, जैसे- दूरदर्शिता, शीघ्र निर्णयन लेने की क्षमता, दृढ़ता, व्यवसायिक ज्ञान, कठोर परिश्रम की आदत, सहयोग से काम करना, साहस, आदि।
      (7) मोर्चाबन्दी या व्यूह रचना (Strategy)- इसका आशय यह है कि अपना नियोजन करते समय प्रतिद्वन्दियों की योजनाओं को भी ध्यान में रखा जाय।

सफल व्यवसायी के गुण

(Qualities of Successful Businessman)
       
(1) प्रभावशाली व्यक्तित्व (Impressive Personality)
(2) विवेकशील, कल्पनाशील एंव महत्वाकांक्षी (Rational Imagination and Ambition)
(3) उत्साह, साहस, तत्परता एंव दूरदर्शिता (Firmness and Courange)
(4) अथक परिश्रम (Hard Labour)
(5) सिद्धान्त एंव सदाचार (Principle and Honesty)
(6) लाभ की अपेक्षा सेवा को प्राथमिकता (Service First Profit afterwards)
(7) व्यवसाय में रुचि एंव विशिष्ट शिक्षा (Interest in Business and Specific Education)
(8) ग्राहक का विश्वास (Confidence of Customers)
(9) चरित्रवान (Character)
(10) योजनाओं को परखने व निर्णय लेने की शक्ति (Power decision taking and to examine the planning)
(11) परिवर्तनशील गतिविधियों से परिचित (Alertness towards change)
(12) मतभेदों को दूर करने की क्षमता (Ability to solve the dispute) 
(13) अनुशासनप्रियता (Discipline)
(14) स्वतन्त्र विचार-शक्ति (Independent Thinking)
(15) व्यवसायिक कीर्ति या साख (Goodwill of Business) 
(16) समय का मूल्यांकन (Value of Time)
(17) अन्य गुण (Other Qualities)